Sunday, 2 February 2014

क्या करूँ - मना है

जिस शहर में इन पन्छियों को चहचहाना मना है ।
उस शहर में इंसान को भी खिलखिलाना मना है ।
 
बता तूँ क्यों कर रहा है हाल ए दिल सबको बयाँ ।
ऐ मेरे दिल चुप भी कर यहाँ कुछ सुनाना मना है ।

बेकार है उड़ने की कोशिश बुलबुलो तुम क़ैद हो ।
बंद पिंजड़ों में अपने परों को फड़फड़ाना मना है ।

आज जब माँगा रहम तब महबूब यह कहने लगा ।
इश्क किया तब सोचते अब आँसू बहाना मना है ।

क्या करूँ कैसे करूँ मैं कैसे बताऊँ हाल ए दिल ।
उसकी गली में बिन इज़ाज़त आना जाना मना है ।

यह आशिक़ों का जमघट खड़ा इन्तज़ारे वक्त में ।
सब अपनी बारी पर चलेंगे अभी तो जाना मना है ।

कुदरती फ़रमान है ये तूँ वक्त ए जिबह तैयार रह ।
दस्तूर ए मक़तल है यही यहाँ तड़फड़ाना मना है ।

दिल के ज़ख्म नासूर अंजुम हो रहे हैं, क्या करूँ ।
मज़बूर हूँ यहाँ हुक्म है कि मरहम लगाना मना है ।

 
-- (अंजुम कानपुरी)
 

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