Friday, 28 March 2014

आंसुओं से नहीं पसीने से तकदीर संवरती है



आंसुओं से नहीं पसीने से तकदीर संवरती है
नाकामयाबी केवल मेहनतकशों से डरती है
...
नन्हा दीपक पूजित हो मंदिरों में पहुँच गया
उसकी लौ घोर अंधकार के सामने ठहरती है

हथेली की रेखाओं में राजयोग तलाशने वालों
सफलता की राह काँटों से होकर गुजरती है

अपने कदम जमा अंगद की तरह धरा पर
आँधियों का क्या है वो तो चलती रहती है

डरे हुए चेहरे हकदार हैं थूके जाने के ‘मधु’
काल की धारा केवल वीरों का श्रंगार करती है
 
-डाॅ. मधुसूदन चौबे

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