Friday, 31 January 2014

आँखों से बस ढलता रहा हूँ मैं

खुल जाये न आँचल दर्द भरा,सीता रहा हूँ मैं
पीयूष की प्रत्याशा में,विष पीता रहा हूँ मैं -...
हर शब् की सहर होती है इतना तो यकीन है
ले रौशनी की आश अंधेरों में जीता रहा हूँ मैं -

जान कर भी, मधुमास आ चला जायेगा
उँगलियों पर आने के दिन गिनता रहा हूँ मैं-
उदय मालूम नहीं परदेसी का पता हमको
स्नेह की पाती फिर भी लिखता रहा हूँ मैं -

कुछ अदावत रही पैरों से पत्थरों की यक़ीनन
ले जख्म गहरे पांव सफ़र करता रहा हूँ मैं-
फुर्सत न मिली कहीं बैठ कर रो लूँ हालात पर
अश्कों की तरह आँखों से बस ढलता रहा हूँ मैं -

- उदय वीर सिंह

Monday, 27 January 2014

दिल में हमेशा जिंदा एक ख्वाब रखियेगा

दिल में हमेशा जिंदा एक ख्वाब रखियेगा
चाहे कुछ भी हो उम्मीदों का सैलाब रखियेगा
 
आसमान को छु लेना एक दिन पर अभी वक्त है
पाँव जमीन पर रख, खर्चों का हिसाब रखियेगा

तेरी खुशियों में दुनिया तेरा साथ देगी
मुश्किलों में अपनी सोच लाजवाब रखियेगा

ग़मगीन चेहरे अपनी पहचान खो देते हैं
दर्द में भी मुस्कुराने का मिजाज रखियेगा

नशा मंजिल को पाने का कभी उतरे ना जनाब
अपने अंदर खत्म ना हो ऐसी शराब रखियेगा

किसी रोते को गर तुम चुप करा सको तो जरुर करो
अपने दिल में इंसानित का जज्बा बेहिसाब रखियेगा

तन्हा राहों में भी खुद को तन्हा ना समझना
अपनी ऐसी सोच रख, खुद को कामयाब रखियेगा ।


 

 ख्वाहिश-

Wednesday, 22 January 2014

काश ऐसा भी कोई जहान मिले..

काश ऐसा भी कोई जहान मिले..
जहां हर चेहरे पर मुस्कान मिले...

बहुत हुआ इस जमीन पर इसांनियत का खून
लोग अब कहते है कुछ ऐसा हो कि हमें आसमान मिले,...

रोते हुए को देख कर किसी और की आँख भी रो पड़े,
काश ऐसा भी दुनिया में कोई जहान मिले,

नफरत की भावना हर जगह फैली है
कहीं तो मोहब्बत का भी कुछ निशान मिले..

दर्द के सिलसिले कभी खत्म ही नहीं होते,
खुशियों को खरीद सके, दुनिया में ऐसी भी दुकान मिले

सिर्फ इंसानों में ही क्यूँ है ये गिले-शिकवे?
इस दुनिया में ऐसा भी कोई शख्स हो जो बेजुबान मिले..

क्यों तलाश करते हो खुदा की, वो तुम में ही कहीं बसता है
बस शर्त ये है कि आज के दौर में पहले कोई इंसान मिले

'ख्वाहिश' कहता है कि वो दिन भी जरुर आयेगा..
जब मंदिर में अल्लाह और मस्जिद में भगवान मिले ।

 

 -ख्वाहिश-

Monday, 20 January 2014

चांद का ख्वाब उजालों की नज़र लगता है

चांद का ख्वाब उजालों की नज़र लगता है
तू जिधर हो के गुज़र जाए खबर लगता है।
 
उस की यादों ने उगा रखे हैं सूरज इतने
शाम का वक्त भी आए तो सहर लगता है
 
एक मंज़र पे ठहरने नहीं देती फितरत
उमर भर आँख की किस्मत में सफर लगता है
 
मैं नज़र भर के तेरे जिस्म को जब देखता हूँ,
पहली बारिश में नहाया सा शज़र लगता है।
 
बे सहरा था बहुत प्यार कोई पूछता क्या
तू ने कंधे पे जगह दी है तो सर लगता है
 
तेरी कुरबत के ये लम्हें उसे रास आएँ क्या
सुबह होने को जिसे शाम सा डर लगता है।
 
 
-- वसीम बरेलवी

Saturday, 18 January 2014

बहरूपिया हूँ खुद के कितने पहनावे किये

मैं मजबूत हूँ, मैंने ढेरों बार ये दावे किये
किसको क्या बताऊँ, खुद से छलावे किये

मिट्टी के घड़े सा हूँ बहुत ही कमजोर मैं
लोह पुरुष होने के मैंने छद्म दिखावे किये

हर चोट से ढहता ही रहा इंच दर इंच मैं...
खत्म होने तक बचे रहने के भुलावे किये

घुड़कता रहा मैं जुबां से हर मोड़ पर तुझे
दिल ने धड़कन- धड़कन तेरे बुलावे किये

सभ्य, शांत, शालीन, सौम्य, विद्वान् ‘मधु’
बहरूपिया हूँ खुद के कितने पहनावे किये


 

मधुसूदन चौबे..