Monday, 20 January 2014

चांद का ख्वाब उजालों की नज़र लगता है

चांद का ख्वाब उजालों की नज़र लगता है
तू जिधर हो के गुज़र जाए खबर लगता है।
 
उस की यादों ने उगा रखे हैं सूरज इतने
शाम का वक्त भी आए तो सहर लगता है
 
एक मंज़र पे ठहरने नहीं देती फितरत
उमर भर आँख की किस्मत में सफर लगता है
 
मैं नज़र भर के तेरे जिस्म को जब देखता हूँ,
पहली बारिश में नहाया सा शज़र लगता है।
 
बे सहरा था बहुत प्यार कोई पूछता क्या
तू ने कंधे पे जगह दी है तो सर लगता है
 
तेरी कुरबत के ये लम्हें उसे रास आएँ क्या
सुबह होने को जिसे शाम सा डर लगता है।
 
 
-- वसीम बरेलवी

No comments:

Post a Comment