Wednesday, 11 December 2013

ज़िंदगी रोज़ घटा करती है, मौत किश्तों में हुआ करती है.!!

ज़िंदगी रोज़ घटा करती है,
मौत किश्तों में हुआ करती है.!!

जब कभी कूक सुनूँ कोयल की,
दिल में इक हूक उठा करती है.!!

ज़िक्र आए जो कभी उनका फिर,
रात आँखों में कटा करती है.!!

वो हक़ीक़त में कहाँ है मिलती,
रोज़ ख़्वाबों में मिला करती है.!!

याद को कौन कहे अब मरहम,
याद ज़ख्मों को हरा करती है.!!

जिसकी चाहत में जले परवानें,
वो शमा खुद भी जला करती है.!!

मौज आ आ के मेरे साहिल तक,
रेत पर नाम लिखा करती है.!!

यार अखबार में है क्या रक्खा,
यूँ ही अफवाह उड़ा करती है.!!

कोई सहरा तो नहीं आँखों में,
आँखें बेआब बहा करती है.!!

मुझ से क्यूँ रूठ गई है किस्मत,
ऐरे-गैरों से वफ़ा करती है.!!

_ निलेश 'नूर'

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