दिल ये तुझसे अगर लगाया था
ज़ख़्म दानिश्ता मैंने खाया था
इन्तेहाँ देख ज़ब्त की मैरे
ज़ख़्म खाकर भी मुस्कुराया था
मुझको अपनों का था गुमाँ जिस जाँ
तीर भी उस तरफ से आया था
मुझको हैरत है मैरा दुश्मन ही
वक़्ते गर्दिश में काम आया था
दर्द का नोहा वो बना आखिर
जो मसर्रत का गीत गाया था
दर्द की इन्तिहाँ परखने को
मैंने ख़ुद को ही आज़माया था
हर सफ़र आसां हो गया बिस्मिल
साथ माँ का जो मैरे साया था
अय्यूब ख़ान "बिस्मिल"
ज़ख़्म दानिश्ता मैंने खाया था
इन्तेहाँ देख ज़ब्त की मैरे
ज़ख़्म खाकर भी मुस्कुराया था
मुझको अपनों का था गुमाँ जिस जाँ
तीर भी उस तरफ से आया था
मुझको हैरत है मैरा दुश्मन ही
वक़्ते गर्दिश में काम आया था
दर्द का नोहा वो बना आखिर
जो मसर्रत का गीत गाया था
दर्द की इन्तिहाँ परखने को
मैंने ख़ुद को ही आज़माया था
हर सफ़र आसां हो गया बिस्मिल
साथ माँ का जो मैरे साया था
अय्यूब ख़ान "बिस्मिल"
No comments:
Post a Comment