Tuesday, 18 November 2014

क्या ज़रूरी कि हर इक बात पे रोया जाए

जब न 'मुद्दों' के सवालात पे रोया जाए।।
तब सियासत ! तेरी औक़ात पे रोया जाए ।।

क्या वही भूख़, वही चीख़, वही ज़ुल्म-ओ-सितम ?
चल ! किसी मज़हबी जज़्बात पे रोया जाए ।।

कर दिया उसके 'बड़ेपन' ने मेरा क़द बौना ।
ऐसी कमज़र्फ़-मुलाक़ात पे रोया जाए ।।

जेब में नोट, बड़ी कार, नया ऐ.सी. घर ।
अब चलो ! देश की हालात पे रोया जाए ।।

ज़िन्दगी, माना हंसाती है बहुत कम, लेकिन
क्या ज़रूरी कि हर इक बात पे रोया जाए ??

त्रिवेणी पाठक

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