Sunday, 23 November 2014

बिना सोचे बिना समझे सभी बाहर निकल आए,

बिना सोचे बिना समझे सभी बाहर निकल आए,
ज़रा सी बात पर पत्थर फिके, ख़ंजर निकल आए.

जहाँ मुमकिन न हो दीवार को जड़ से गिरा देना,
दुआ करता हूँ उस दीवार में कोई दर निकल आए.

ज़रा सा और चलकर देखते हैं साथ में हम तुम,
हमारे सोच में कोई रास्ता बेहतर निकल आये.

ज़मीं के साथ रिश्ता था दरख़्तों का, कहाँ जाते,
परिंदे उड़ गए आकाश में जब पर निकल आए.

जो बैठे हैं बचा कर होश उन्हें रौनक मुबारक हो,
घुटन थी इसलिए महफ़िल से हम बाहर निकल आए,

हमें एक बार कम से कम कभी ऐसी खुशी भी दे,
नमक का ढेर खोदें और वहाँ शक्कर निकल आए.

अशोक रावत

No comments:

Post a Comment