Thursday, 6 November 2014

आज हूँ ख़ाली, किसी दिन फ़िर भरा हो जाऊँगा

आज हूँ ख़ाली, किसी दिन फ़िर भरा हो जाऊँगा ।।
आंच में तप कर अगर निकला - खरा हो जाऊँगा ।।

यक़ ब यक़ चलते बने - सारे तअल्लुक़ तोड़ कर ।
क्या लगा था ? चोट खा कर अधमरा हो जाऊँगा !!

तुम मुझे भी क्या समझते हो मियाँ - अपनी तरह !
आज हूँ कुछ और, कल कुछ दूसरा हो जाऊँगा ??

अब समंदर दो, कि दरिया दो, कि दो आँसू मुझे ।
ज़र्द पत्ता हूँ, भला कैसे हरा हो जाऊँगा ??

जज़्ब कर रक्खा है ख़ुद को रोटियों की फ़िक्र में ।
प्यार ने ग़र छू लिया तो बावरा हो जाऊँगा ।।

तुम अभी 'मुमताज़' बनने का हुनर तो सीख लो !
'ताज़' क्या सारा का सारा 'आगरा' हो जाऊँगा ।।

सोचता हूँ आज जी लूँ - ख्व़ाब जैसी ज़िन्दगी ।
एक दिन सच्चाइयों का मक़बरा हो जाऊंगा ।।

है अभी जो कुछ नमी-नर्मी - उसे महसूस लो !
वक़्त के हत्थे चढ़ा तो ख़ुरदरा हो जाऊँगा ।।


त्रिवेणी पाठक

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