हल्के से झटके में भरभराकर टूट जाता है
कांच का पुतला है टकराकर टूट जाता है
यूँ तो अडिग रहता है जमाने के तूफानों में
अपनों की ठेस से लहराकर टूट जाता है
प्रतिमा पर अर्पित करता है मन का नैवेध्य
आशीष न मिले तो उकताकर टूट जाता है
कहाँ पीछे हटा वो जिंदगी की जंग से पर
आस्तीन के सांप से घबराकर टूट जाता है
जब भी लोग हंसे तब तब हौंसला बढ़ा ‘मधु’
वक्त करे मजाक तो मुस्कुराकर टूट जाता है
- Dr. Madhusudan Choubey
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