Sunday, 14 September 2014

उछलता जा

पगडंडियों को राजमार्ग में बदलता जा
पदचिह्न बनाने को दृढ़ता से चलता जा

जमाने की चोटें कुछ न बिगाड़ पायेंगी
वक्त की आग में इस्पात सा ढलता जा

ये अँधेरे अभी भाग जायेंगे दूम दबाकर 
तू प्रखर दीपशिखा बनकर सुलगता जा

तान सीना और कर आकाश मुट्ठी में 
बस माँ-बाप के क़दमों में झुकता जा 

देर करने पर मंजिल रूठ जाती है ‘मधु’
बैठ मत, उठ, दौड़ता और उछलता जा 

- Dr. Madhusudan Choubey

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