Sunday, 14 December 2014

मैं तेरे सांचे में बिल्कुल ढलना नहीं चाहता

मैं तेरे सांचे में बिल्कुल ढलना नहीं चाहता
तू जैसा है अच्छा है तुझे बदलना नहीं चाहता

तू तू रहे, मैं मैं रहूँ और हम दोनों हम जो जाएँ
तुझे मिटाकर मैं जहां में बचना नहीं चाहता

आदमी हूँ इसलिए जुदा हूँ मैं कठपुतलियों से
उँगलियों के इशारों पर मैं चलना नहीं चाहता

तू मुझे प्रिय है, मैं भी तेरी धड़कनों में बसा हूँ
तेरी खुश्बुएं मिटाकर मैं महकना नहीं चाहता

अनंत आकाश है जहाँ तक उड़ सके उड़ 'मधु'
आज़ाद परिंदे मैं तेरे पर कतरना नहीं चाहता

-डॉ. मधुसूदन चौबे

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