Tuesday, 23 December 2014

सब के साथ रह कर भी, मैं तन्हा रहा बहुत

ना जाने क्यूँ इस शहर में ये चर्चा रहा बहुत
सब के साथ रह कर भी, मैं तन्हा रहा बहुत

हमेशा सच कहने की आदत ने मुझे बुरा बना दिया
झूठ की दुनिया में सच हर एक को चुभता रहा बहुत

मुद्दतें गुजर गइ उसने मेरा हाल तक ना पुछा
एक मैं था उसके हक़ में नजमें लिखता रहा बहुत

बदलते हुए हालात अक्सर इंसान को जीना सीखा देते हैं
एक वक्त था जब अपने साये से भी मैं डरता रहा बहुत

मेरी कहानी का ये एक हिस्सा, मैनें आज तक सबसे छुपाया है
बुरे दौर में जहां मरना आसान था, वहां मैं जीता रहा बहुत

इंसान की खूबियाँ आज धन-दौलत, शोहरत से नापी जाती है
सच कहूँ तो मेरे भी गिर्द ये एक तमाशा रहा बहुत

'ख्वाहिश' कीमत उन अश्कों की हैं जो आँखों से बहते नहीं..
रोना आसान है, इंसान वही है जो हर हाल में हंसता रहा बहुत

- ख्वाहिश

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