Friday, 26 December 2014

वक्त इंसान को थकाता भी है तपाता भी है

वक्त इंसान को थकाता भी है तपाता भी है
बड़े गहरे जख्म देकर उन्हें भर जाता भी है

कभी महरूम रखता है दाल रोटी से वक्त
तो कभी बंदे को बुलंदी पर पहुंचाता भी है

आज मिली हार, मार जलालत हद से ज्यादा
कल मस्तक पर केसर तिलक लगाता भी है

माँ की गोद और लोरी से देता है मीठी नींद
फिर माँ को छीनकर बरसों जगाता भी है

देता है ठोकरों से घुटनों और मुंह पे चोट
यही धूल से उठाकर गले लगाता भी है

जिसका वक्त सध जाए उसके क्या कहने
वह मिट्टी को छूकर सोना बनाता भी है

जन्म से मौत तक कई मोड़ आते हैं ‘मधु’
औकात देकर वक्त औकात बताता भी है

-डॉ. मधुसूदन चौबे

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