Monday, 8 December 2014

असलियत को झुठलाने निकले

असलियत को झुठलाने निकले
काग़ज़ के फूल महकाने निकले

सूफ़ी निकले जोगी निकले जो भी निकले
सब ख़ुदको बहकाने निकले

मन में, बूढ़ी इमारतें दबी निकलीं
तैखानों में तैखाने निकले

गाँव से उस दिन शहर तो आ गये
पैर जमाने में ज़माने निकले

हम असलियत को झुठलाने निकले,,,

- शोमेश शुक्ला

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