Monday, 8 December 2014

तू कहीं अजनबी न हो जाए

डर है जिसका वही न हो जाए
तू कहीं अजनबी न हो जाए

दर्द औरों का गर समझने लगे
आदमी आदमी न हो जाए

चन्द ख़ुशियों से आशना हूँ मैं
रंज को आगही न हो जाए

मैं यही सोच कर हूँ चुप अब तक
बेसबब दुश्मनी न हो जाए

मौत के वक़्त देख कर उनको
ख़्वाहिशे ज़िन्दगी न हो जाए

शेर मेरे हैं जुगनुओं की तरह
बज्म़ में रौशनी न हो जाए

तुम भी लहज़ा बदल के बात करो
'शायर' ऐसा कभी न हो जाए

शायर देहलवी

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