नहीं नहीं ये नहीं तेरी रह-गुज़र फिर भीं
मै जानता हूँ मिरे हमसफ़र मगर फिर भी
मै जानता हूँ मिरे हमसफ़र मगर फिर भी
तेरे फ़साने में हो ज़िक्र मैरा ना-मुमकिन
हर एक सतर पे थिरकती रही नज़र फिर भी
यक़ीन था शब-ऐ-वादा न कोई आयेगा
झपक न पाई मेरी आँख रात भर फिर भी
तेरी तलाश में क़ुर्बान मेरी उम्रे अज़ीज़
मेरे रफ़ीक़ ये मोहलत है मुख़्तसर फिर भी
लहु लुहान हुआ जिसकी संगबारी से
पनाह देता है उस शख़्स को शजर फिर भी
- जनाब सरवर शहाब साहब इंदौर
हर एक सतर पे थिरकती रही नज़र फिर भी
यक़ीन था शब-ऐ-वादा न कोई आयेगा
झपक न पाई मेरी आँख रात भर फिर भी
तेरी तलाश में क़ुर्बान मेरी उम्रे अज़ीज़
मेरे रफ़ीक़ ये मोहलत है मुख़्तसर फिर भी
लहु लुहान हुआ जिसकी संगबारी से
पनाह देता है उस शख़्स को शजर फिर भी
- जनाब सरवर शहाब साहब इंदौर
No comments:
Post a Comment