Saturday, 10 May 2014

भटक रहा हूँ मैं इक ख़ाब का पता लेकर

समाअतों में बहुत दूर की सदा लेकर
भटक रहा हूँ मैं इक ख़ाब का पता लेकर

तुम्हारी याद बरस जाय तो थकन कम हो
कहाँ कहाँ मैं फिरूं सर पे ये घटा लेकर

तमाम हिज्र के मारों-सा शब के दरिया में
मैं ख़ुद भी उतरा वही चाँद का घड़ा लेकर

तुम्हारा ख़ाब भी आये तो नींद पूरी हो
मैं सो तो जाऊंगा नींद आने की दवा लेकर

मैं ख़ुद से दूर निकलता गया उधड़ता गया
ख़ुद अपनी ज़ात से निकला हुआ सिरा लेकर

तमाम शहर की तामीर धूप ने की है
मिलेगी छाँव मुझे उसका आसरा लेकर

बचा है मुझमें बस इक आख़िरी शरर ‘आतिश’
कोई तो आये तिरी याद की हवा लेकर

- स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’

No comments:

Post a Comment